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Sunday, July 28, 2013

ये जवानी है दिवानी

निकला कोठी नू पीछे छड़ कर,
सारी दुनिया को अपनी यादो मे समेटने…
आखो मे एक सपना सँजोकर,
क्वाबो सी काएनात मे पनपने…

ज़िंदगी मेरी पल भर की हो सही,
आँगन ना रेहवे समेटा हुआ कही.
ख्वाइश बस इतनी लिए,
कुछ ना छूटे इन्न सांसो से मेरे…

छोड़ चला अप्नोको को पीछे,
प्यार से भी अपनी आँखे मुंडे.
दोस्ती से दामन को तोड़े,
नये जहाँनो को झोली मे भरने…

खुली हवाओ मे उड़ान भरने,
आसमान को अपना आँगन बनाने.
नापने से भी नापा ना जा सके,
ज़िंदगी कुछ एस तरह जीने…

दुनिया के इस मेले मे,
मेरी हस्सी की खिलखिलारिया है गूँजे…
एक पागलपन को दिल मे पनपे,
कोइ अंत ना होवे ऐसी राह पर चलने…

बड़ी बड़ी इमारतो के बीच मैं खोया,
सूने पहाड़ो के माथे को चूमा ..
धूप एक जहान की सेकी,
तो दूजे जहान की छाओ में पनाह ली…

रुक ना सका कही मैं,
घर ना कर पाया कही अपना…
डर के समुंदर मे गोते ख़ाता,
कही कुछ छूट ना जाए इस भय मे जीता…

ज़िदगी जीने निकला था मैं,
पर ज़िदगी नू ही पीछे छड़ आया..
ख़ुदग़र्ज़ क्यों मैं ऐसा हुआ,
अपनो की कुशी रोंधा और अपनी कुशी भी खो आया…

घर तो अपना वोही रहा,
लोग तो अपने वोही रहे…
प्यार के बिना सूखा ही रहा
राही सा अकेला अब मैं अपने घर को जा लौटा..........